Saturday, August 6, 2011

उच्च शिक्षा एवं भविष्य दॄष्टि




    जीवन की यात्रा में प्राणियों ने विकास के अनेक सोपान तय किये हैं। इनमें मस्तिष्क और  वैचारिक क्षमता के विकास की दॄष्टि से मानव जाति की उपलब्धि विलक्षण है। सामान्यतया विकास को भौतिक उपादानों के आधार पर मापा जाता है किन्तु यह अवधारणा भौतिक तत्वों से अधिक मानव की वैचारिक क्षमता पर अवलम्बित है। हम एक ऐसे विश्व में रह रहे हैं जहाँ सूचना प्रौद्योगिकी के बहुआयामी विस्तार ने विकास के नये गवाक्ष खोले हैं। आज विकास चार महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर है- ज्ञान, भाषा की गहरी समझ, जीवन दॄष्टि एवं संकल्प।
    भौतिक प्रक्रियाओं एवं नियमों की स्वभाविक एवं विशद समझ ही विकास का मूलाधार है। मात्र प्रयोगशालाओं और साहित्यिक इतिवॄत्तों तक सीमित ज्ञान यदि वह जीवन के व्यापक संदर्भों से नहीं जुडता तो सतही एवं निराधार रह जाता है। समाज में ज्ञान का सम्प्रेषण प्रभावी भाषिक अभिव्यक्ति से ही संभव है। ज्ञान अप्रासंगिक हो जाता है यदि उसमें भविष्यदॄष्टि नहीं है भविष्य दॄष्टि कल्पना शक्ति को जागॄत करती है और समाज के सभी अवयवों को गहराई से प्रभावित करती है लेकिन संकल्पहीन दॄष्टि व्यर्थ है।  दॄढ संकल्प में ही भविष्य के सपनों को पूरा करने की शक्ति निहित है।
      उच्च शिक्षा से जुडे होने के नाते हम ज्ञान का अधिग्रहण एवं प्रसार कर सकते हैं तथा भविष्य की संभावनाओं और लक्ष्यों का निर्धारण कर सकते हैं। समाज का नेतॄत्व करने वाली ताकत के रूप में उच्च शिक्षा के औपचारिक संस्थान एवं संगठन ज्ञान एवं सांस्कॄतिक विरासत को समाज में सम्प्रेषित करते हैं। व्यक्ति के सामाजिक एवं बौद्धिक विकास में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है की सामाजिक, सांस्कॄतिक एवं राजनैतिक स्थिति में परिवर्तन के समानान्तर शिक्षा के बुनियादी ढाँचे में भी परिवर्तन हो। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सामाजिक एवं आर्थिक विकास की तुलना में भारत मॆं शिक्षा में परिवर्तन की गति अत्यंत मंद है अनुकूलन न हो पाने की यह स्थिति समाज में गम्भीर तनावों को उत्पन्न करती है। जरूरी है कि शिक्षा को युगीन संदर्भों एवं अपेक्षाओं के आधार पर नवीन स्वरूप दिया जाए।

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