लोकगंगा जुलाई २००७ के अंक में प्रकाशित
इस खिड़की के बाहर
कब से एक पेड़ खड़ा है
अपनी शाखों को समेटे
बेलों को लपेटे
उसकी पत्तियों के बीच से कभी.कभी
झाँकती है सुबह
शरण में बैठे पंछी
मुस्कुराते है
उड़ जाते है
डैने फैलाये
सुदूर
आकाश की सीमावर्तिनी गहराइयों तक
एक जिन्दा अहसास
मुझे समेट लेता है
एक वातास जगाती है नींद से
मैं अपने भीतर की समस्त जड़ता को झटक
उड़ने को आतुर हो जाती हूँ
तभी घना कोहरा छा जाता है किरण पर
तत्क्षण मुझ पर उतर आता है
वही समूचा नकारापन
मेरे
अस्तित्व की सार्थकता को निचोड़ते हुए
फिर कोहरा हटता है
कही से फिर कोई किरण मुझे
आलोकित करती है
पक्षी चहचहाते हैं
गाते हैं गुनगुनाते हैं और मैं जीवन्त हो जाती हॅँू
कोहरे और किरण के बीच ऊभ चूम होती मै
हाँ यह मैं ही हूँ।
इस खिड़की के बाहर
कब से एक पेड़ खड़ा है
अपनी शाखों को समेटे
बेलों को लपेटे
उसकी पत्तियों के बीच से कभी.कभी
झाँकती है सुबह
शरण में बैठे पंछी
मुस्कुराते है
उड़ जाते है
डैने फैलाये
सुदूर
आकाश की सीमावर्तिनी गहराइयों तक
एक जिन्दा अहसास
मुझे समेट लेता है
एक वातास जगाती है नींद से
मैं अपने भीतर की समस्त जड़ता को झटक
उड़ने को आतुर हो जाती हूँ
तभी घना कोहरा छा जाता है किरण पर
तत्क्षण मुझ पर उतर आता है
वही समूचा नकारापन
मेरे
अस्तित्व की सार्थकता को निचोड़ते हुए
फिर कोहरा हटता है
कही से फिर कोई किरण मुझे
आलोकित करती है
पक्षी चहचहाते हैं
गाते हैं गुनगुनाते हैं और मैं जीवन्त हो जाती हॅँू
कोहरे और किरण के बीच ऊभ चूम होती मै
हाँ यह मैं ही हूँ।
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