Thursday, September 29, 2011

अक्स

पेड़ की किसी शाख पर
कौंधती बिजली की तरह जिंदगी
आँधी के किसी झोंके में
डोलती फुनगी
जैसे काँप रही है।
कविता की ऊँचाई से
समुद्र की गहराई तक
जिसका अक्स था
उसने उस फुनगी को
झकझोर कर
कोमल पत्तों को
तोड़ दिया।
अब दर्पण में सिर्फ
नग्न शाख है
जिसमें अपना अक्स
दिखाई देता है।
यथार्थ, विकृत
बिम्बों के परे जिन्दगी
सच कितनी
मुश्किल है।

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