पिता से सुना है
कि तुम एक आखिरी लकडी के खातिर
फिर से पेड पर चढी और टहनी टूटते न टूट्ते
अंतहीन गहराई में जा गिरी
उनकी आँखों के कोरों में गहराते व्यथा के बादलों
में क्षत विक्षत तुम और उनका बचपन
अपनी सम्पूर्ण वेदना में उभर आता है
क्यों गिरती रही हैं चट्टानों से स्त्रियाँ
कभी जलावन के लिये
कभी पानी की तलाश में कोसों दूर भटकते
कभी चारे के लिये जंगल में
बाघ का शिकार बनती स्त्रियाँ
बचपन में बहुत बार तलाशा है
मैने अपने सिर पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श
पर बार-बार वही सवाल मेरे हिस्से में आया है
क्यों नहीं जी पाती एक पूरी जिन्दगी
पहाड पर स्त्रियाँ
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