Saturday, October 8, 2011

दस्तक

 कुछ तय नहीं है अभी
चाँद के दरवाजे पर दस्तक देनी है
समय की बहती हुई नदी के मुहाने तक जाकर
आसमानी साये धीरे. धीरे आगे बढ़ते हुए ठिठकते हैं।
चाँद की रोशनी में नहाये हुए रात के हस्ताक्षर
हर साये को उसका काम समझाते हुए बहते जाते हैंा
सब तरफ चुप.चुप
हर कोई व्यस्त
पर एक दस्तक नदी की लहरों में तैर रही है
नदी में भी नदी पर भी
वो चाँद में भी है जमीं पर भी
वही आसमानी सायों को रौशन कर
उनकी मुट्ठी में दबे सपने आजा़द कर देगी
ऐसे जैसे पथरीला तट  पानी की ताक़त से बह जाये
रात की मुदीं आँखें खुल जायें
बंद पलकों के ख़्वाब खुली आँखों से नज़र आयें
चाँद की रोशनी में नहा जायें
पहाड़, जंगल समूची धरती,बर्फ रेत और समंदर
आसमाँ ज़मीं हो और जमीं आसमाँ ज़मीं हो जाये
रात की बंद पुस्तक के पन्नों को खोलना बाकी है
समय की बहती नदी में सायों का हमसाया होकर बहना
अभी बाकी है।

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