Saturday, October 15, 2011

कोई अजनबी नहीं है



इन पगडंडियों से गुजरे हैं कई बार
कई रूप कई नाम
अपनी पहचान के साथ
 कई बार सड्कों से गुजरते हुए
हर शहर बाशिंदों की पहचान  से जुड जाता है
और बाशिंदे जुड जाते हैं शहर की आत्मा के साथ
 सुबह.  शाम,  रात.
 गली.  सडक . चौराहे  पगडंडी
नुक्कड वाली पान की दुकान
से गुजरते हुए एक अबूझ पर्त में लिपटे हुए
जाने पहचाने चेहरे दिखते हैं.
अपने अंतस में समेटे हुए शहर की खुशबू को
मैं जहाँ से गुजरती हूँ
आँखें बंद कर मह्सूस करती हूँ
अपने भीतर के शहर को
वहाँ कोई आवरण नहीं है
शहर पूरा दॄश्य है
बचपन है, बचपन के साथी हैं
घर है
सब तो वही है
पर  आज उसी शहर में
सब कुछ अबूझ लगता है
मैं रुक रुककर लोगों को देखती हूँ
और उनमें अपनी पह्चान खोजती हूँ
पर सब में अजनबी चेहरे दिखते हैं
मैं  आँख मूँद लेती हूँ
और फिर भीतर के शहर को
महसूस करती हूँ
जहाँ मैं हूँ
मेरा बचपन
ठंडी हवा है
बाँज के पेडों से छनकर आती हुई
धूप पानी में झिलमिलाती हुई
मेरे साथ चलने लगती है हवा
पहाड बाहों में ले लेते हैं मुझे
अचानक गुजर गई मेरी मित्र लौट आती है
 कोई मुस्कुराता है
अपना ही परिचित चेहरा मुझे मिल  जाता है
और मैं जहाँ हूँ वहाँ से एकाकार हो जाती हूँ
हर शहर
मेरा शहर है
वहाँ की मिट्टी की
गन्ध समायी है मुझमें
और कोई अजनबी नहीं है.


5 comments:

  1. कोई मुस्कुराता है
    अपना ही परिचित चेहरा मुझे मिल जाता है
    और मैं जहाँ हूँ वहाँ से एकाकार हो जाती हूँ
    हर शहर
    मेरा शहर है
    वहाँ की मिट्टी की
    गन्ध समायी है मुझमें
    और कोई अजनबी नहीं है.

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  2. मैं जहाँ से गुजरती हूँ
    आँखें बंद कर मह्सूस करती हूँ
    अपने भीतर के शहर को
    वहाँ कोई आवरण नहीं है

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  3. मैं आँख मूँद लेती हूँ
    और फिर भीतर के शहर को
    महसूस करती हूँ
    जहाँ मैं हूँ.......

    आखिर तलाश यहीं आकर ख़त्म होती है.

    बहुत ही खूबसूरत कविता !

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