Monday, October 10, 2011

इस महानगर में

               लोकगंगा अंक१ अक्टूबर २००७में प्रकाशित

सुबह ऊब के दस्ताने पहने आती है
और रात ओढ़ती है उदासी का नकाब
यादों के कटीले जंगल में
गूँजती तनहाइयों की आवाज
अजनबियों के इस शहर में
छटपटाते हुए एकहिरन
अपने साये को ढूँढता है
इस अरण्य की कोलाहल से भरी
चाहरदीवारी के अकेलेपन में कैंद
सुबह शाम के बोझिल सपनों से बेबस
अपनी ही पदचापों को रौंदता
अपनी ही प्रतिध्वनि से बोलता
अपनी ही परछाई से लड़ता.झगड़ता
अपना घर, अपना गाँव अपना पता खोजताहै।

1 comment:

  1. अजनबियों के इस शहर में......
    अपनी ही परछाई से लड़ता.झगड़ता
    अपना घर, अपना गाँव अपना पता खोजताहै।- mahanagron ke udas aur ekaki jeevan main sangharshrat vyakti ki chhatpatahat ko abhivyakt karti sunder kavita hai..

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