Saturday, November 12, 2011

और बसंती लौट गयी


                                                                        लोकगंगा फरवरी २००९ के अंक में प्रकाशित

        आज वह गाँव चली गयी।...............................................................................................................................................................................................................................  कोई दस एक बजे का वक्त रहा होगा जब सबसे पहले सड़क के किनारे काली की मूर्ति के सामने उसे मैने एक छोटी सी बच्ची का हाथ थामे उदास खड़े देखा था। अक्टूबर का महीना था मौसम कुछ ख़ुशग़वार हो चला था। आसमान गहरी नीली रंगत लिये बेहद ख़ू़बसूरत लग रहा था। वातावरण में एक तरलता सी थी लेकिन इस मौसम में भी पतझड़ उसके चेहरे पर स्थायी भाव की तरह जमा हुआ था। बच्ची रो.रोकर कुछ कहे जा रही थी पर उसके कानों तक शायद बच्ची के रोने की आवाज़ पहुँच ही नहीं रही थी। वह उसी तरह निर्लिप्त खड़ी थी।

          मैं सामने के ठेले से सब्जी़ ख़रीदकर घर की ओर मुड़ी ही थी कि अचानक उसकी छोटी सी बेटी सड़क की ओर दौड़ पड़ी । आगे से आ रहे ट्रक वाले ने अचानक ब्रेक नहीं लगा दिया होता तो वह ज़रूर  उसके  नीचे आ गयी होती। ट्रक वाले ने उतर कर नाना प्रकार की गालियों का मंत्रोच्चार प्रारंभ कर दिया, तब कहीं जाकर उसकी ख़ामोश टूटी और डपटते हुए उसने बेटी को गोद में उठा लिया और ट्रक ड्राइवर को कोसते हुए तेजी से सड़क पार कर गयी।

          अगले दिन सुबह अभी मेरी नींद ठीक से खुली भी नहीं थी कि दरवाजे पर जो़र.ज़ोर की भड़भड़ाहट सुनायी दी। झुँझलाते हुए दरवाजा खोल कर देखा तो शुरू हो गयी ’मैं सामने वाले पांडे जी के घर गया था, आपके घर झाड़ू¬.पोछा का काम बता रहे थे। आज तो मेरे पास टैम नहीं है, मैं कल से आ जाऊँगा’

मैं चुप ! यह क्या! ......

दो मिनट के मौन के बाद मैंने उससे पूछा ‘तुम्हीं हो ना जो कल सड़क के किनारे अपनी बेटी के साथ खड़ी थी ?

 सड़क पर ही तो खड़ा हूँ मेडम अब..............

अच्छा तो अब मैं चलता हूँ और वह चल दी। यह था उससे मेरा दूसरा एनकाउंटर। मैं हाल में ही इस शहर में ट्रांसफर पर आयी थी। अभी नई जगह थी ठीक से व्यवस्थित नहीं हो पायी थी। शाम को थोड़ा सा वक्त निकाल कर पाँडे जी  के यहाँ जाने की सोची चलो थोड़ा काम वाली के बारे में जाँच पड़ताल कर ली जाय भला बिना जाने बूझे किसी को ऐसे ही कैसे घर में काम पर रख लिया जाय क्या भरोसा कौन है, कैसी है? तभी वह बच्ची को लिये  आ धमकी ‘हाँ मेडम मैं कल सुबह से आ जाऊँगा’ तब मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा

लम्बा दुबला  अत्यंत कृषकाय शरीर ,रंग जो शायद कुछ वर्षों पहले गोरा रहा होगा, बिखरे हुए बाल दयनीयता की साक्षात् प्रतिमूर्ति सी। बेटी यही कोई दो ढाई साल की रही होगी। बड़ी ही सुन्दर पर बहती हुई नाक को फ्राक से पोछ. पोछकर उसने उस सुन्दरता में कई पैबन्द लगा दिये थे। एकबारगी मुझे लगा कि इसे कह दूँ कि मुझे काम वाली की ज़रुरत नहीं है पर न जाने क्यों मैं कुछ कह नहीं पायी और इस तरह बसंती मेरे घर में दाखिल हो गयी।

          बसंती यही नाम था उसका पर उसके जीवन में कभी बसंत आया होगा या आकर थोड़े भी दिन रुक पाया होगा इसमें मुझे संदेह था। और यही उसके जीवन  का सच भी निकला जब एक दिन बातों. बातों में उसने मुझे अपनी कहानी सुनायी।

    बसंती के माता.पिता नेपाल के किसी छोटे से गाँव में रहते थे।वह बहुत छोटी यही कोई बारह. तेरह साल की होगी जब उन्होंने बसंती का विवाह उससे पन्द्रह वर्ष बड़े व्यक्ति से  दस हजार रुपया लेकर कर दिया था। विवाह के बाद बसंती अपने ससुराल दिल्ली  आ गयी । ’मैं क्या बताऊँ? मेडम; कैसा लगता था उन दिनों जब मैं छोटा सा उतने बड़े आदमी से ब्याह कर दिया गया। बहुत रोता था। पहले. पहले बहुत रोना आता था माँ  याद आता था गाँव का भी याद आता था धीरे.धीरे सब भूलता गया। एक बात और बताऊँ मेडम रीना के पापा के बारे में  वो उमर में बड़ा था पर अच्छा था ।

तो फिर बसंती तुम यहाँ इस सामने वाली झुग्गी बस्ती में  कैसे आ गयीं?

झुग्गी में ही रहना लिखा था तो कौन टाल सकता था आप ही बताओ। क्या करुँ एक छोटा सा कमरा किराया लेता है पूरा चारसौ। आप लोग भी काम तो खूब लेगा लेकिन पैसा देते टैम आनाकानी । पच्चीस. पचास रुपया ज्यादा देने को बोलो  तो लगेगा जाने बसंती आप लोग को कितना ठग ले रहा है। मेडम आटा का कीमत बढ़ता जा रहा है। पैसा कोई बढ़ाता नहीं उस पर ये कि बसंती टैम पर आया कर । कितना छुट्टी लेता है। क्या बसंती को हारी बीमारी नहीं होता?

अच्छा मेडम मुझे और भी घर जाना है। बातों में मेरा टैम खराब मत करो और बरतनों को जोर.जोर से पटक. पटक कर  माँजते हुए सिंक में भर धोती गयी जिसे उसने पानी से लबालब भर तरणताल बना डाला था। ऐसा लग रहा था मानो नियति ने उसके साथ जो अन्याय किया है उसका प्रतिशोध लेने का प्रयास कर रही हो।

      बरतनों की दुर्दशा को देख कर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा था पर उसकी कठोर मुखमुद्रा देखकर मुझे कुछ कहने का साहस ही नहीं हो रहा था और जैसे ही कुछ हिम्मत जुटा कर मैंने  कुछ कहा तो उसने ज़ोर से बरतनों को पटका और यह कहती हुई चल दी ‘ संभालो अपना काम यह टोका.टोकी मेरे बस का नहीं है।’

     मैं हक्की.बक्की पर अगले दिन बसंती फिर अपने काम पर हाज़िर हो गयी

गलती तो हो गया।  आप सब लोग मुझे बहुत अपना लगता है। पर आप मुझे कुछ बोला न करो। क्या करुँ आज रीना का पापा होता तो मै बरतन पर थोड़ी लगा होता। शहादरे  पर रहता था हम मेरे ससुर का आप जानता है न बरतनों पर जो कलई होता है वह काम था। ठीक.ठाक  गुजारा हो जाता था लेकिन सब अपने से ही ख़तम कर डाला मेडम! खूब पीता था वह तम्बाकू भी खाता था कैंसर हो गया मर गया। जब मरा मेरा रीना तीन महीने का पेट में था। क्या करता मेडम ? जी किया मैं भी मर जाऊँ पर मरना कैसे हो पाता।  तीन बच्चे घर में और एक पेट में।

क्या? मैं चौंकी तुम्हारे तीन बच्चे और हैं।

हाँ बड़ा लड़का यही कोई होगा पन्द्र साल का। कैसा ठंड था उस साल जब चंदन हुआ था , मैं तो कुछ जानता ही नहीं था उसका दादी ने ही सब किया। अचानक उसकी आँखें नम हो आयीं सब चले गया मेडम चंदन के होने के साल भर बाद ही वो नहीं रहा । माँ था वो मेरा शादी के बाद उनने ही मुझे मँा का प्यार दिया था। बसंती की आँखों से टप.टप आँसुओं की दो बूँदें ज़मीन पर चू पड़ीं। मुझे महसूस हुआ जैसे मरुस्थल में खड़ी वह बूँद भर पानी को तरस रही हो। न जाने उसकी झोली में और कौन.कौन से दुःख भरे पड़े हैं जिनसे टूट.टूट जाती हुई तीस.बत्तीस की उमर में ही वह पचास की लगने लगी है,सच ही है जीवन की धारा जब विपरीत प्रवाह में बहने लगती है तो कोई कूल कोई किनारा सहारे के लिये नहीं बचता अगर कुछ बचता है तो मन की गहरी पर्तो में अन्तहीन कष्ट देती यादों का सिलसिला..............मेरे मन में बसंती के बारे में कही गयी मेरी पड़ोसी मिसेज शर्मा की बात तैरने लगी.‘‘ पता नहीं यह अपना भाग्य कहाँ से लिखाकर लायी है नही ंतो इतना भयंकर कांड क्या इसीके सामने होना था इसके पति के नहीं रहने के बाद इसके ससुर ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली सौभाग्य से एक जगह चौकीदार की नौकरी भी मिल गयी साथ ही रहने को घर भी ।बच्चों समेत ये सब उसी घर के आउटहाउस में रहने चले गये ।बहुत बड़ा घर था इतने बड़े घर की चौकीदारी के लिये तनख्वाह भी अच्छी खासी मिल रही थी । लेकिन इस बाहर से सफेद शप्फ़ाक नज़र आने वाले बंगले के पीछे इतना स्याह मौजूद था । बंगला  उसके तथाकथित मालिक का अपना नही था।जबरन कब्जा किये हुए इस बंगले की चौकीदारी ने एक दिन बसंती के ससुर की भी जान ले ली ।एक रात कुछ गुण्डों ने गला रेत कर परिवार वालों कव सामने ही चौकीदार को मार डाला । पता नहीं किसी की हिस्से में यही सब क्यों आता है?

बाहर आसमान गाढ़ा हो रहा था। लग रहा था जो़र का तूफान आने वाला है। एक तूफान  बसंती के अंदर भी था जिसे वह किसी तरह ज़ज़्ब कर रही थी। अचानक आँधी तीव्र वेग से चलने लगी इसके साथ ही बसंती घबरा कर उठ खड़ी हुई।  रीना घर में अकेले ही है न जाने क्या हाल होगा ?

उसे तुम घर में अकेले कैसे छोड़ देती हो ? साथ क्यों नहीं ले जाती जहाँ.जहाँ काम करती हो।

पेट के लिये सब करना पड़ता है मेडम ले गया पहले.पहले ले गया पर किसी को अच्छा नहीं लगा सब कहता गंदगी करता है जगह.जगह या तो तू काम ही कर या बच्ची को ही संभाल। इसलिये अब लाना नई पाता। एक बात बताना मेडम अपनी रीना को मे आपका लड़की जैसा सकूल में भेजना चाहता हूँ। कितना अच्छा लगता है। मैं भौत काम करके इसे आपका बेटी जैसा पढ़ा लेगा न?

ओहो कैसे ह्रदयहीन लोग हैं ऐसा करना तूुम कल से बच्वी को यहाँ ले आया करना  अच्छा अब अंधड़ कम हो गया है तुम घर जाओ बच्ची डर रही होगी बसंती का काम लगभग समाप्त होते देख मैंने बडी़ उदारता दिखाते हुए मैंने कहा। बसंती बड़ी ख़ुश़़. खुश यह कहती हुई्र घर को चल दी मेडम आप बड़ा अच्छा हो।

अगले दिन से बसंती बच्ची को अपने साथ लाने लगी एक दो दिन तो सब ठीक चला लेकिन जब बच्ची ने सोफे पर कूदना शुरु किया तो मेरी उदारता थोड़ी. थोड़ी हवा होने लगी । फिर भी अभी तक सब ठीक ही था शायद कुछ समय और यथास्थिति बनी रहती यदि बच्ची मेरी जतन से सँवारी गयी चादर को गीला न कर देती। अचानक मुझे याद आया कि बसंती के तो तीन बच्चे और हैं इसे तो उन्हें देखना चाहिये पूछने पर पता चला कि उनमें से बड़ा किसी ढाबे पर काम करता है, वहीे रहता है। दूसरा बेटा जिसे वह स्कूल भेजती थी दिन भर घर से लापता रहता था। उससे छोटी बेटी को उसने दूसरे शहर में किसी रिश्तेदार के पास छोड़ा हुआ था क्योेकि वह घरों में काम कर जितना कमा पाती उतना सारे परिवार के पेट भरने के लिये काफी न था। दूसरा एक कारण यह था कि उस रिश्तेदार ने घर का काम करवाने के एवज में उसकी बेटी को स्कूल में  पढ़ाने का वादा भी कर रखा था। एक दो दिन फिर मैंने किसी तरह ज़्ा़ज़्ब किया और फिर उसे उसे एक नेक राय दे ही डाली कि बच्ची को वह  पास वाले म्युनिसपैलिटी के स्कूल में डाल दे वहाँ उसे दिन का खाना भी मिल जाया करेगा । बसंती शायद मेरा भाव समझ गयी एक शब्द भी उसने नहीें कहा बस आहत दृष्टि से मेरी ओर देखा मानो कह रही हो ब्रूटस तुम भी............. उस दिन के बाद वह बच्ची को कभी मेरे यहँा नहीं लायी। उसके और मेरे मघ्य कुछ और जुडा़ तो बस एक अनचाहा मौन......................... और आज अचानक उसके नेपाल वापस चले जाने की खबर मुझे  देते हुए सरोज आंटी जिनका मैंने ही बसंती से परिचय कराया था कह रहीं हैं कि अब बसंती अपने लोगों के बीच ही रहना चाहती है..........................................................यहाँ तक का सच तो मेरी दृष्टि का सच है पर सच इतना ही पारदर्शी होता तो शायद जिन्दगी भी इतनी घुमावदार और सर्पिल न होतींमुझे इसके बाद की कोई खबर नहीं है

 अब पाठक ही तय करें कि बसंती का क्या हुआ होगा ...................

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