जहाँ शब्द रीत जाते हैं
नि:शब्द बैठे-बैठे चुपचाप
ख़ामोशी से ख़ामोशी बातें करती है।
एक अनजान सी आहट
एक प्रतीक्षित मुस्कुराहट
धीमे से लुक-छिपकर
कुछ वादा करती है।
अपनी उलझनों में बुने हुए
कुछ ख्वाब जाल बन जाते हैं
कुछ बटे हुए जालों में फिर से
नये ख्वाब जग जाते हैं
रस्सी पर चलते छायानट
प्रतिमा अभिनय करती है
बुनी हुई रस्सी के जैसे
जीवनरेखा चलती है।
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bahut sundar..achchha lga aapke blog par aakar...
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