Tuesday, September 27, 2011

तस्लीमा

तस्लीमा!
चाहा था मैंने भी तुम सा साहस पाना
पर एक दिन जब मैंने खुलकर साँस ली,
चाहा अपने साथ अपनेपन में अपने लिए एक पल जीना
तो पाया कि वह साँस वह पल वह जीवन तो मेरा था ही नहीं
 जंजीरें और पहरे
खूब सख्त खूब गहरे
 छद्म नैतिकता
और कई मानदंडों से घिरी थी मैं
कई परिधियाँ थी मेरे इर्द गिर्द
कई तीखी निगाहें थीं
हिकारत थी सवाल थे
फिर पछतावा
यह क्या किया,
स्वप्न फिर यह क्यों जिया,
किससे क्योंकर क्या छल किया?
फिर मन के कटघरे में कैंदकर
हर साँस को
मुक्ति की हर
कोशिशो आवाज़ को
फटकारों की चाबुकों
से भर दिया।
साँकल चढ़ा हर दरो दीवार पर
नैतिकता के मुलम्मे में लपेट कर हर साँस को
अपनी ही साँसों को छोड दिया।
अपने ही क़दमों पर बेड़ी डाली
अपने ही हाथ बाँध दिये।
अपनी ही आवाज को अनसुना किया
अपने ही सपनों से नाता तोड दिया
एक स्त्री से एक अच्छी स्त्री
बनने की जद्दोजहद में 
मैंने जाना
आसान नहीं
हलाहल पीना
तस्लीमा होना....................................

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