घर लौटना चाहा था मैने
पर फिर से टूटी हूँं,
दिखती है अपनी ही खंडित छवि
टूटे काँच की असंख्य किरचों में।
बडी़-बड़ी मेहराबों के बीच से गुजरती हुई
छोटी और लघुतर हुई हूँ कई बार।
कुछ स्वप्न आकर गुजर गये
खाली राहों पर चलते.चलते,
थके पैरों की आहट भी
साथ छोड़ निकल गयी है
रेत पर लिखे हुए हर्फों में।
याद आता है कोई पुराना दंश
सागर तट पर बैठे-बैठे,
मस्तूलों को आते. जाते देखते,
लहरों में बहते पानी को पकड़ने
की कोशिश बहुत की है मैने,
पर मुट्ठी भर रेत भी हाथ नहीं आयी एक बार
उलझी है बस काई और सेवार।
सुबह दौड़ती है दौड़ती रहती है,
दिन की उदास गरमाई सब ओर पसरी रहती है,
दिन उसके आगोश में
चुपचाप कही जा छुपता है;
थकी वृद्धा सी साँझ आँगन में उतरकर
पक्षियों का ढक देती है घर परिवार।
आँगन में , छत पर ,मुडेर पर,
हवा में, फर्श पर उदासी की परतें
उतरती है मद्धिम संशयनुमा लिबासों में,
मन की परतों सा धरती का अन्तर चिटकता है
गर्म लावा उठता है ;
पर शाम के साये उस पर भी छा जाते हैं।
दीवारों की सुराखों सें
चींटी की तरह सरकती जाती है हर आशा़...........
कैलेण्डर के पन्ने इस
तरह बरस दर बरस बासी होते रहते हैे,
धूल की जमती हुई लकीरों में।
रात के स्वप्न चीखते हैं सुबह होने तक
सुबह फिर रात होने तक दौड़ती है
एकाकी तन्हा सड़क पर लगातार।
कहीं उल्लू कहीं चमगादडों का बसेरा है
राहों के मकानों में घना अंधेरा है,
चिलकती हुई आँखें दुखती हैं बार-बार
पसली से उठती है दर्द की एक तीखी पुकार।
उजड़े दरख्त हैं उखड़ी मिट्टी पर,
रात भर चलना पर काँटों की चुभन
दूर नहीं होती है कहीं भी किसी पार।
खाक होती हुई मिट्टी की राख उड़ती है,
मेरे आसमाँ के भीतर है हार और प्रहार।
जिंदगी का हर स्वर थक रहा है,
पर एक पहलू और है जो जग रहा है...............
पर फिर से टूटी हूँं,
दिखती है अपनी ही खंडित छवि
टूटे काँच की असंख्य किरचों में।
बडी़-बड़ी मेहराबों के बीच से गुजरती हुई
छोटी और लघुतर हुई हूँ कई बार।
कुछ स्वप्न आकर गुजर गये
खाली राहों पर चलते.चलते,
थके पैरों की आहट भी
साथ छोड़ निकल गयी है
रेत पर लिखे हुए हर्फों में।
याद आता है कोई पुराना दंश
सागर तट पर बैठे-बैठे,
मस्तूलों को आते. जाते देखते,
लहरों में बहते पानी को पकड़ने
की कोशिश बहुत की है मैने,
पर मुट्ठी भर रेत भी हाथ नहीं आयी एक बार
उलझी है बस काई और सेवार।
सुबह दौड़ती है दौड़ती रहती है,
दिन की उदास गरमाई सब ओर पसरी रहती है,
दिन उसके आगोश में
चुपचाप कही जा छुपता है;
थकी वृद्धा सी साँझ आँगन में उतरकर
पक्षियों का ढक देती है घर परिवार।
आँगन में , छत पर ,मुडेर पर,
हवा में, फर्श पर उदासी की परतें
उतरती है मद्धिम संशयनुमा लिबासों में,
मन की परतों सा धरती का अन्तर चिटकता है
गर्म लावा उठता है ;
पर शाम के साये उस पर भी छा जाते हैं।
दीवारों की सुराखों सें
चींटी की तरह सरकती जाती है हर आशा़...........
कैलेण्डर के पन्ने इस
तरह बरस दर बरस बासी होते रहते हैे,
धूल की जमती हुई लकीरों में।
रात के स्वप्न चीखते हैं सुबह होने तक
सुबह फिर रात होने तक दौड़ती है
एकाकी तन्हा सड़क पर लगातार।
कहीं उल्लू कहीं चमगादडों का बसेरा है
राहों के मकानों में घना अंधेरा है,
चिलकती हुई आँखें दुखती हैं बार-बार
पसली से उठती है दर्द की एक तीखी पुकार।
उजड़े दरख्त हैं उखड़ी मिट्टी पर,
रात भर चलना पर काँटों की चुभन
दूर नहीं होती है कहीं भी किसी पार।
खाक होती हुई मिट्टी की राख उड़ती है,
मेरे आसमाँ के भीतर है हार और प्रहार।
जिंदगी का हर स्वर थक रहा है,
पर एक पहलू और है जो जग रहा है...............
* इस ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ। बहुत अच्छा लगा। बधाई और शुभकामनायें!
ReplyDeleteजिंदगी का हर स्वर थक रहा है,
पर एक पहलू और है जो जग रहा है.
बहुत अच्छी कविता।
कमेंट बाक्स से अगर वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें तो कैसा रहे!
धन्यवाद सिद्देश्वर जी !वर्ड वेरीफिकेशन पर मैने वाकई ध्यान नहीं दिया था अब हटा दिया है.
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