Saturday, September 10, 2011

एै गै पहाड़ै यादा......................


चेहरे पर मंद स्मित, आँखों में जीवन की चमक, साँवला रंग, दुबला. पतला शरीर,, मझोला कद, व्यक्तित्व में सादगी एवं विनम्रता, संघर्ष की अपार क्षमता और उत्कट जिजीविषा..........
साहित्य की दृष्टि से बेजान शहर हल्द्वानी को जागृत करने में लगे नारायण सिंह का शब्दचित्र है यह जिनके लिये पुस्तकें ही जीवन हैं और आजीविका भी। सिर पर कैप, कंधे में काला बैग उसमें स्वलिखित पुस्तकें तथा पहरू, लोकगंगा इत्यादि पत्रिकाएँ लिए आँधी.पानी और तेज धूप से बेखबर साइकिल पर सवार होकर घर.घर में विक्रय हेतु चलती नारायण सिंह की अनवरत यात्रा और गुनगुनाता स्वर.....। लोक संस्कृति और लोक भाषा से विमुखता के इस दौर में लोक भाषा और संस्कृति को अपने गीतों के माध्यम से जीवित रखने के एक प्रयास का नाम है नारायण सिंह बिष्ट जो लोगों के बीच नरैणदा के नाम से मशहूर हैं। पुस्तकें खरीदने के उनके विनम्र आग्रह को टाल पाना बीघा, बुग्गी, रेता, दड़ा, प्लॉट, ईंट और मकान के विचारों में तल्लीन लोगों के लिए भी बहुत कम संभव हो पाता है। इस हिसाब से साधारण ग्रामीण सा यह व्यक्ति मार्केटिंग का गुरू कहा जा सकता है।
अल्मोड़ा जनपद के लमगड़ा ब्लॉक की बिसौत पट्टी में अवस्थित ग्राम ठाट में 13 फरवरी 1966 को जन्मे नारायण सिंह के दादा परदादा सभी पधान की उपाधि से विभूषित रहे। अपने बारे में बताते हुए नारायण सिंह पुरानी यादों में खो जाते हैं-”कक्षा चार.पाँच से ही स्कूल में होने वाली बाल सभा में आवाज लड़खड़ाने के बावजूद मैं विशेष प्रयासरत रहता था। जूनियर हाईस्कूल में हमारे स्काउट के भीमसिंह मास्साब थे उन्होंने मुझे विशेष प्रोत्साहन दिया। 1980 में विद्यालय के उच्चीकरण के अवसर पर सोबन सिंह जीना जी आये तो भीमसिंह मास्साब ने मुझे स्टेज पर बोलने के लिए एक कहानी दी उससे आत्मविश्वास बढ़ा।“
1982 में उन्होंने रा0 इ0 का0 लमगड़ा से हाईस्कूल किया। 1982 के बाद आगे की पढ़ाई लखनऊ नेशनल इंटर कॉलेज से की। साहित्यिक अभिरुचि थी पर घरवालों के अनुरोध पर कॉमर्स लेनी पड़ी। सौभाग्य से 15 गोखले मार्ग लखनऊ में जिस मोहल्ले में वे अपने बड़े भाई के साथ रहते थे वहाँ दीवान सिंह डोलिया जी का फोक डाँस का एक नाट्य ग्रुप था। इस साहित्यिक माहौल से प्रभावित होकर नरैणदा ने गीत लिखना प्रारंभ किया। पहला गीत पहाड़ की याद में हरेले पर लिखा। भावमग्न होकर वे गाते हैं-”सौंणे की संकरौति दीना, हरियाली को त्यारा/उदेखिया म्यार मन नानतिनां भ्यारा” । वे बताते हैं ये गीत गुरुजी को सुनाया उन्होंने शाबासी दी पर बड़े भाई ने हतोत्साहित किया। इसे मैने चुनौती के रूप में लिया और गीत लिखने का अनवरत सिलसिला प्रारंभ हो गया....
उदेख (उदासी) का यह स्वर नारायण सिंह के कई गीतों में दिखायी देता है। उनमें पहाड़ की घर कुड़ी के भीतर के जीवन की हलचल के साथ.साथ उजड़ रहे पहाड़ की व्यथा.कथा भी अंकित है -“बाबुक जोड़ी जमीन, बाबुक बड़ाईं घर बेचि बेर बम्बई गो.“........“,कैल सुड़ि कुड़िकि डाड़़..........”(घर कुड़ी)
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विसंगतियाँ के प्रति व्यंग्य का स्वर भी उनकी रचनाओं में उभर कर आया है-”कैं सलाह,कैं सिफारिश छ जुगाड़/याँ जाँणि कतुवां वारिस छ जुगाड़......“ (बावन जुगाड़ जुगाड़ बावनी)
पहली कविता 1983 में लिखी। नारायण सिंह के लिखे 10.12 गीत डोलिया जी ने आकाशवाणी से प्रसारित भी करवाये। 1985 में रंगमंच से जुड़े। 1989 में कौसानी में सुमित्रानंदन पंत की स्मृति में गंगा स्तुति गाई ।” छल छला छल छलको पाणी/देवो की गंगा ओ तेरो पाणी.....“
1987 में नेशनल डिगरी कॉलेज से बी0 कॉम किया। कई जगह नौकरी भी की। कानपुर से निकलने वाली पत्रिका शैल सुता में काम किया। 1989.90 में लखनऊ से निकलने वाले सरहदी सांध्य दैनिक में तथ 1990.91 में लखनऊ से ही निकलने वाली मशाल पाक्षिक में कार्य किया।1992 में वे हल्द्वानी आ गये। पूरे एक साल युवा कल्याण विभाग में दिहाड़ी पर नौकरी की। इसके बाद उत्तरांचल दीप साप्ताहिक (हल्द्वानी )से जुड़ गए।बाद में 1994 में कुछ समय के लिए यह भी बंद हो गया। इसके बाद कविता और गीतों को ही जीवन और आजीविका का साधन बना लिया। 1995 के बाद लभना प्रकाशन नाम देकर स्वयं ही  अपनी पुस्तकें प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। पूछने पर वे बताते है ”लभना में ’ल’ माँ के नाम (लक्ष्मी देवी) से, ’भ’ (भवान सिंह) पिता के नाम से और ’ना’ अपने नाम नारायण से लिया है। शारदा मार्केट में लक्ष्मण सिंह लमगड़िया के बाराही प्रिटिंग प्रेस के सहयोग से पहली किताब छपी। 1996 में पंचेश्वर से लेकर भिलंगना तक पदयात्रा की। सुंदरलाल बहुगुणा एवं कौसानी की राधा बेन से भी मुलाकात हुई। उनकी अब तक बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पचास कुमाउनी कविताएँ, दस कुमाउनी गीत एवं कतिपय लेख आकाशवाणी के विविध केन्द्रों से प्रसारित हो चुके हैं। 320 से अधिक कवि गोष्ठियों में शिरकत तथा अनवरत रंगमंचीय भागीदारी के साथ निरंतर जारी है उनका  गीतों का लेखन, प्रकाशन एवं उसी के माध्यम से जीवन के जुगाड़ का सफर- “अक्षर तीन भै बणू जुगाड /नरैण किताब बणूं जुगाड़ ........ “ (बावन जुगाड़ जुगाड़ बावनी)
                                कल्पना पंत,

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