Friday, October 21, 2011

भय




आज जब सब ओर
महिला मुक्ति के नारे बुलंद हैं
अगली कतारों में मौजूद हैं महिलाएँ
धरती से अन्तरिक्ष तक
छाया है उनके स्वप्नों की
परिधि काविस्तार..........
फिर क्यों आज भी,
बडी हो रही बेटी को देखकर
मेरी दॄष्टि संप्रेषित करती है
भय की अदॄश्य और अघोषित साँकलें
संभावित खतरों से बारबार
आगाह करते हैं
उसे मेरे शब्द
अपने ही शब्द उलझते हैं
अपनी ही निगाहों के जाल में
अपने ही रास्ते बदल जाते हैं
अपनी ही दी गयी परिभाषाएँ
उलटती हैं
उसके सशंकित नयनों की भाषा में
समानता के देखे स्वप्न ठहर जाते हैं
सच है यह-
कि सातों दरवाजों के ताले तोड
सातों समुद्रों का अतिक्रमण
कर नापे है स्त्री ने सातों आकाश
लेकिन उसके प्रति
और भी हिंस्र हो्ता जा रहा है
समाज .!




1 comment:

  1. सच बयानी! वाकई महिलाओं के प्रति समाज में हिंसा बढ्ती जा रही है

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