आज जब सब ओर
महिला मुक्ति के नारे बुलंद हैं
अगली कतारों में मौजूद हैं महिलाएँ
धरती से अन्तरिक्ष तक
छाया है उनके स्वप्नों की
परिधि काविस्तार..........
फिर क्यों आज भी,
बडी हो रही बेटी को देखकर
मेरी दॄष्टि संप्रेषित करती है
भय की अदॄश्य और अघोषित साँकलें
संभावित खतरों से बारबार
आगाह करते हैं
उसे मेरे शब्द
अपने ही शब्द उलझते हैं
अपनी ही निगाहों के जाल में
अपने ही रास्ते बदल जाते हैं
अपनी ही दी गयी परिभाषाएँ
उलटती हैं
उसके सशंकित नयनों की भाषा में
समानता के देखे स्वप्न ठहर जाते हैं
सच है यह-
कि सातों दरवाजों के ताले तोड
सातों समुद्रों का अतिक्रमण
कर नापे है स्त्री ने सातों आकाश
लेकिन उसके प्रति
और भी हिंस्र हो्ता जा रहा है
समाज .!
सच बयानी! वाकई महिलाओं के प्रति समाज में हिंसा बढ्ती जा रही है
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