Tuesday, May 15, 2012

यह भाषा भी...

...


ये आवरण
बरसों अपने अस्तित्व पर लपेटॆ
सदियों चलती रही हूँ
मुखौटों की अनजानी भीड में!

गुजरते वक्त के संग-संग
एक नया चमचमाता चेहरा लिये
अजनबी देश की
अजनबी राह्गीर सी
अजनबी देह और अजनबी भेष मे

शीशमहल में नृत्य करती
रक्कासा सी घूमती रही हूँ
अपनी ही अर्थहीन छवियों में
तराशे मैंने जीवन के साजो-सामान
चेहरे पे चस्पा की मुस्कान

अब,
कविता की भाषा में भावनाओं को उलीचते
थक गया है समय
कुछ तराशे सच दिखते हैं
कुछ दर्द बन रिसते हैं
कुछ सर्द तहों में
ठिठुरे से गुम जाते हैं

यह भाषा भी एक मुखौटे सी
परतदार निरंतर बह रही है
समय दर समय
एक-एक सच
आरोपित इतिहास की
अन्तहीन व्याख्याओं में
गुम हो रहा है

इसलिये अपने भीतर ही प्रचंड बवन्डर सी
घूमती हूँ निरन्तर
ताकि जगा सकूँ
बर्फीले पर्वत शिखर सी
कठोर चट्टानी चेतना
कि जिसका हिमस्खलन
पीस दे सदियों की जडताओं को

जला दे
भभकती आग सा आक्रोश
नृशंस क्रूरताओं को
जरूरी है यह मुझमें
लाजमी है यह तुममें
और इस समय में
क्योंकि नेपथ्य के साये
फैला रहे हैं महामारी जैसा डर!

कल्पना पन्त

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