Saturday, October 8, 2011

राह दर राह

राह दर राह
जहाँ कोई मंज़िल नहीं
उन सर्पिल पगडंडियों पर
भी आहटें बजती हैं।
एक मृगमरीचिका खींचती है
लेती  हुई
धूल और धूप में आकार, गढ़ती एक जहाँ
कदम दर कदम छापती  तपती हुई ज़मीन पर
दंभ में बहती हवाएँ मेटती हैं हर निशाँ
जमींदोज होते राहगीर के माप सब
पर नरम सी एक छुअन छुपी रहती है कहीं अरमान सी
छलावा है सब कहीं
जानता राहगीर भी कि सच है यही
फिर खींचता  अज्ञात सा अरमान वह
एक कदम
मंजिल का है कदम जो आग्रही
पा मंजिल थम जाता है वहीं
बैचेन पथिक संतोष पाता न कहीं
खींचती अन्तहीन यायावरी पहचान सी
भूरा मटमैला सामने छाता पहाड़
झरती धूल दिखता रेत का विस्तार
क्षितिज तक तप्त धूल उड़ती
करती प्रहार
अनचाहे मेहमान सी धूप, दिखते बबूल,
लू के बवंडर आसपास
आकाश और धरती को करते उदास
पर कदम दर कदम बढता राही न जाने कहाँ
मुटृठी में लिये एक नया सा आसमाँ
ं...................................

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