रौंदते आ रहे
अश्व तुम्हारे
उनकी पदचापों की कटु ध्वनि
घेरती वन प्रांतर, लीलती दिशाकाश
भयभीत जल, जंगल, जमीन
अंतर में पीडा त्रास ,
भूख,,बेबसी
हमारे घरों में
रोटी की राह तकते
एल्युमीनियम के टेढ़े.मेढ़े बरतन
हाँडी से आती भाप
के साथ उड़ती
मह.मह
महकती गंध नहीं़...............................
अब नहीं
खदबदाता चावल
बटुलियों में
मत छीनों हमसे
ग्रीष्म से तपी धरती की प्यास
बारिश से भीगी माटी की सुवास
पौंधों को पोसने का सुख
धरती से अँखुवाती कोंपल के
शिशुवत पालन की ख़ुशी
मत छीनों प्रथम अंकुर
घर, गाँव,नदी,ठाँव
कभी नापते धरती
स्वर्ग,पाताल
वामनावतार
का कैसा
नया अवतार
यह
नष्ट होता किसान
उजड़ता नंदीग्राम
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