Friday, October 21, 2011

नया आदमी



मेरे पास अनगिनत शब्दहैं
सपनों की अंधाधुन्ध भीड   हैं               
पहले से तय रास्ते हैं
एक अंधी दौड है
मंजिलों के चमकदार पोस्टर हैं
सतमंजिले भवनों के ख्वाब हैं
चमकती दुनिया में छूने को
अनेकानेक आकाश हैं
कई दिवास्र्वप्न हैं
सुनियोजित प्रचार हैं
घर की चौहद्दी के भीतर
परिवर्तन के विचार हैं
पर मेरे बच्चों!
मत चाहना विरासत में मुझसे
दूर तक फैली धरती
तुम चाहो , वाहन, धन
अनियन्त्रित जीवन
माँगो उँचे कंगूरे
पर नहीं माँगना सब्ज रंग

2 comments:

  1. कल्पना जी आपकी यह कविता वर्तमान संदर्भ में यथार्थ को दिखाती हुई उपभोक्तावाद की
    अंधाधुंध दौड में लगी हमारी नई पीढी के लिये बहुत कुछ सोचने पर
    विवश करती है।

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  2. बहुत सुन्दर कविता... अंधी दौड़ की निरर्थकता को दर्शाती, सार्थक कविता.. बधाई!

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