नदी बोलती है
रुई के फाहों से
प्रवासी पक्षी
... उतरते हैं
शिवालिक पर
उँचे शिखरों पर
उदास
हैं वनस्पतियाँ
घिर आया है ठन्डे कोहरे का समुद्र
उड रहा है एकाकी पक्षी
अलकनंदा के
किनारे से
मैंने उठाई है मुट्ठी भर रेत
और बिखर गयी हूँ
शायद,
मैं ही क्रौंच हूँ
मैं ही व्याध
और मैं ही
आदिकवि
क्ल्पना पंत
bahut sunder
ReplyDeleteखूबसूरत... !
ReplyDeleteछोटी सी इस कविता में प्रकृति के साथ एकात्म होने का आकर्षक चित्रण है,जो कविता में उदासी को हावी नहीं होने देता.बहुत सुन्दर !!
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आदरणीया कल्पना पन्त जी
सादर अभिवादन !
बहुत सुंदर और भावपूर्ण कविता है -
अलकनंदा के
किनारे से
मैंने उठाई है मुट्ठी भर रेत
और बिखर गयी हूँ
शायद,
मैं ही क्रौंच हूँ
मैं ही व्याध
और मैं ही
आदिकवि
आपकी अन्य रचनाएं भी पढ़ीं , पसंद आईं … आभार !
शुभकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आभार !राजेन्द्र जी
ReplyDeleteआपकी सभी रचनाएं बहुत ही अचछी और भावभीनी हैं। बार बार पढकर भी मन नहीं भरता…बहुत कुछ सीखने को भी मिला॥मैं आभारी हूं
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