Monday, January 23, 2012

सर्दियों में

लोकगंगा के पहाड २ अंक जनवरी २०१२  में प्रकशित मेरी कविताओं मे से मेरी एक कविता

चीड वृक्ष के नीचे
ठंड से
जल गयी है
घास
चार घ्ररों से
पहाड पर
धुआँ उठता है
उनीदी आँखें खोल देते हैं
पर्वत शिखरों पर
घन्डियाल और क्षेत्रपाल
जा चुके हैं गाँव से नौनिहाल
पहाडों की छाती पर दीखते हैं घाव
गाँव के दिल पर मसोस सी
कायांतरित चट्टानों सी देह
सूनी आँखों से पगडंडियों
को बुहारती है
चलती हैं
सडकों पर यादें
नदी में लहरें
पहाड पर ढाल
पगडंडियों में आहटें
और मन में उलझन
ठंड से ठिठुरते हैं फूल
जंगल सिहर उठते हैं
बर्फ सी ठंडी उम्र की ढलान पर
छोटे- छोटे पुलों पर
दरिया के किनारे
चलते रह्ते है
प्रतीक्षारत
एकाकी वृद्ध

घन्डियाल और क्षेत्रपाल पहाड में क्षेत्ररक्षक देवता माने जाते हैं

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