Wednesday, June 6, 2012

सब्र को पाँथ कर उम्मीद बढाती कविताएँ


”एक महीन साजिश
के तहत
दंगा है,दंगा है
चाहे वह वह गुजरात हो
या फिर हैदराबाद
दंगा उस साजिश
के तहत
राजनीति की
विद्रूप हँसी है“ (पृ0 150)

जनता के विरूद्ध राजनीतिक साजिश को बेनक़ाब करने का प्रयास करती डॉ0 उत्तिमा केशरी की यह कविता अपने समय को समझने की कोशिश है जिस समय में मानवीय संवेदनाएँ कहीं खो गयी हैं। लेकिन इस परिवेश में भी जीवन की सहज रस.गंध को कवयित्री ने अपने कविता संग्रह ’बौर की गंध ‘ में आत्मीयता के गहरे संस्पर्श के साथ अभिव्यक्ति दी है। संग्रह की कविताओं में विषय वैविध्य है। ”एक कवि के लिये इस संसार का कोई भी प्रदेश वर्जित नहीं है ,बल्कि वर्जित प्रदेश के लिये कविता के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं इस दरवाजे से कोइ भी भीतर आ सकता है धूप, हवा, पानी, पक्षी या एक टूटा हुआ पत्ता(एकान्त श्रीवास्तव.आलोचना अंक नौ) या फिर एक ‘नन्हा दिया’ ‘उत्तर आधुनिक सभ्यता के अन्तहीन जंगल में।’(पृ0114)

              ‘अमरवल्लरी’ में दादी की स्मृति सम्पूर्ण आत्मीय परिवेश से बिछड़ कर संशय के वातावरण में अकेेले होते जाने के त्रास को व्यक्त करती है.”दादी/अब मैंने छोड़दिया है/छुपन छुपाई का खेल/क्योंकि/अब/छोटी.छोटी झाड़ि़़यों में भी/दिखने लगी हैं/कई जोड़ी काली आँखें/अब निकट नहीें/दूर दर्शन से ही/करने लगी हूँ दर्शन/प्रकृति के कृत्रिम सौंन्दर्य का/”(पृ017/18)

           ‘पूस की रात’ कविता में अंधकार और प्रकाश जटिल जीवन संघर्ष एवं व्यवस्था की विद्रूपता के भीतर जीजिविषा लिये उस आम आदमी  का प्रतीक है। जिसे केदारनाथ सिंह  की ’पूस की रात’ पुनश्च  कविता में ‘बर्फ भी गलाने से इन्कार कर’ देती है।यहाँ ”फसल की रखवाली/करते हल्कू/अनुभव करता है/उसके बदन का सारा/ रक्त जम गया है/आधी रात/सूखे पत्ते बटोर/अलाव जलाकर/ठंड को ललकारता/अंधकार के/ उस अनंत सागर में/प्रकाश नौका की भाँति/दूर से ही/हिलता.डुलता जान पड़ता है।”(पृ021)

           ‘दुलिया काकी,’ ‘किसान की पत्नी,’ ‘स्त्री विमशर््ा’ ,‘अजन्मे शिशु की पुकार’ ,‘लक्षमण रेखा’ आदि कविताएँ स्त्री की नियति एवं उसके संघर्ष को अभिव्यक्त करतीं हैं। विष्णु प्रभाकर ने लिखा है ”स्त्रीत्व है ही ऐसा प्रसंग. जिसमें जितना अनकहा रह जाता है उतना ही चीत्कार या अदृश्य हाहाकार भी छिपा रह जाता है।” अपने हिस्से का वजूद कविता में यह हाहाकार अर्थवान प्रतीकों मंे अभिव्यक्त हुआ है.-”वह औरत पौरूषीय दंभ को/भेदने की अदम्य लालसा में/उलझ कर रह जाती है/जल चक्र के भँवर सी/फिर भी तलाशना चाहती है/एक तीक्ष्ण रोशनी की लकीर/उस अंधेरी सुरंग के भीतर........”(पृ021)

           प्रेम के विविध बिम्ब भी इस संग्रह में विद्यमान हैं। ‘पहली बार’ कविता में मन के सहज राग की अभिव्यक्ति है. ”हाँ, पहली बार/स्पर्श किया मैने/े तुम्हें/ें जैसे स्पर्श किया होगा ईव ने आदम को।/” (पृ0 98)

           ‘गाँव का गुम हो जाना’ कविता भूमंडलीकरण में लुप्त होती संस्कृति का बोध कराती है.”वह सुनना चाहता है/जाँते की घर्र.घर्र/और/ऊखल.समाठ के मध्य/चूड़े का पट.पट/लेकिन/अब वह गाँव/स्मृतियों से/गुम हो गया है/विश्व बाज़ार की/मंडी में.......” (पृ0 52)

            लेकिन ‘गाँव का सूर्यास्त’ कविता में गाँव का एक बिम्ब और उभरता है जो आत्मीयता एवं सुकून का अहसास कराता है.  ”तब लौट आयीं गायें/ अपने .अपने बथान पर/माँ सेकने लगी रोटी/बाबूजी लौट आये/मजदूरी कर/रोटी और पका आलू खा/हम भाई. बहन सो चुके थे/चिराग से गुम/उस अंधेरी कोठरी में/जैसे/सूर्य अस्त हो चुका हो/अगली सुबह की/अपनी /नियति लिये।” (पृ0 116)

            संक्षेप में ये कविताएँ जीवन से गहरे जुड़ाव को अभिव्यक्त करती हैं। भाषा भाव और प्रतीक कवियत्री ने ’अनुभवों के शब्दकोश ‘  (पृ0 46) में से चुने हैं जिनमें वह ’जीवन के लिये निरन्तर अनंत प्रेम कहानियाँ लिखने की कामना करती है।‘ (पृ0 44)

         संग्रह की कविताओं में बौद्धिक बोझिलता और दुरूहता नहीं है। हरिश्चन्द्र पाँडे की एक कविता है -”.दिन का अंत जद्दोजहद का अंत नहीें/घर को लौटना शिविर को लौटना है/अभी अंधेरे के खिलाफ एक लड़ाई है प्रतीक्षित/अभी वक्त सब्र को पाँथ कर आँच देने का है/.....”.सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और बाजारवाद के चारों और फैले इस अंधेरे के दौर में कवियत्री से अभी बहुत ‘उम्मीदें बाकीं’ हैं।
                   
                         --  -----                           अप्रैल 2008 में लोकगंगा पत्रिका में प्रकाशित             


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