Monday, May 13, 2013

हमारी चुप्पी



उन्हें नाराज नहीं करना था इसलिए ये चुप्पी थी
वे हर जगह मौजूद थे
हर गोरखधंधे में उनकी जगह थी
वे कानून में थे
जेल की चहारदिवारी के भीतरभी
हर दफ्तर की कुर्सी में थे
कागज कलम और चश्मे में भी
हर पेड पर इंजेक्शन से पनपे फलों की तरह
और लताओं में लम्बोतरी गोल- मटोल सब्जियों की तरह थे
दुकानों मेंथे
मकानों में थे
स्विस बैंक के अकाउंट में मजबूत थे
तिजोरियों के तालों में थे
शीर्ष पर सफेद परिधानों और
मुस्कुराहटों के साथ थे
उनकी कई जोडी आँखें थी
हजारों पाँव थे
हम उन्हें चुनते थे
वे हमें चुगते थे
उन्हें महत्वपूर्ण धंधे संभालने थे
और हम अर्थहीन थे
हम उनकी जमीन थे
और खुद बेजमीन थे
वे आसमानों की सैर करते
और हम एकटक आसमान से बरसने की गुहार करते
और इस तरह दिन बीतते गये
वे पनपते गये और
हम रीतते गये................
.........................
कल्पना

1 comment:

  1. आदरणीय महाशया,
    ब्लॉगों में साहित्यिक रचनाएँ ढूँढता,पढ़ता हुआ 'दृष्टी' तक आ पहुँचा|पहली पेज में प्रकाशित सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं|अन्य रचनाएँ नही पढ़ी हैं,कृपया लिखना जारी रखें|
    सादर|

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