एक अजीब से बुखार से गुजर रहा है
से ज्यादा थिगलियाँ हैं
पवित्र धर्म स्थान करोड़ों लाशों के
गवाह हैं
पवित्र नदियाँ कंकालों का
रेला लिए।आतीं है
और समृद्धौं में
रेवडि़याँ बँट जातीं हैं
बाजार चमक रहे हैं
चेहरों से रौनक गायब है
और मुखौटे जिन्दा हैं
पर क्या हम आज भी
शर्मिंदा हैं ?
मेरा देश
किसानों के पाँवों पर प्रेमचंद के हाेरीसे ज्यादा थिगलियाँ हैं
पवित्र धर्म स्थान करोड़ों लाशों के
गवाह हैं
पवित्र नदियाँ कंकालों का
रेला लिए।आतीं है
और समृद्धौं में
रेवडि़याँ बँट जातीं हैं
बाजार चमक रहे हैं
चेहरों से रौनक गायब है
और मुखौटे जिन्दा हैं
पर क्या हम आज भी
शर्मिंदा हैं ?
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