Sunday, February 25, 2018

एक  अजीब  से  बुखार से  गुजर  रहा है

मेरा  देश

किसानों के पाँवों पर प्रेमचंद  के हाेरी
से ज्यादा  थिगलियाँ  हैं
पवित्र  धर्म स्थान करोड़ों  लाशों  के 
गवाह  हैं
पवित्र नदियाँ  कंकालों  का
रेला  लिए।आतीं  है
और समृद्धौं  में
रेवडि़याँ  बँट जातीं हैं
बाजार  चमक रहे हैं
 चेहरों  से रौनक  गायब है
और  मुखौटे  जिन्दा  हैं
पर क्या हम आज भी
शर्मिंदा  हैं ?

कल्पना

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